
पं. पू. संत श्री गुरुदेव बाबाजी
संत श्री श्री 1008 सद्गुरु ईश्वरदत्तजी महाराज संतश्री के धर्म एवं अध्यात्म संबन्धी विचार
॥ गुरु ॐ ॥
परम संत सद्गुरुदेव श्री ईश्वरदत्तजी ब्रह्मचार
प्रश्न: आपकी विचार धारा क्या है ?
उत्तर : चुस्त सनातनी होना वेदधर्म का पालन करना प्राणीमात्र के कल्याण की कामना करना ही मेरा लक्ष है। अधिकांश छद्म धर्मविलंबी मनमाने ढंग से वेद धर्म तथा हिन्दू धर्म की व्याख्या करते हैं तथा निहित स्वार्थों के लिए धर्म का दुरुपयोग करते हैं इस बात से मैं दुःखी हूँ। सच्चा धर्म प्राणीमात्र में सद्भावना जाग्रत करता है। प्राणीमात्र शोषण रहित हो, गरीबों के साथ न्याय हो यही मेरी कामना है।


प्रश्न : यज्ञ जैसे धार्मिक अनुष्ठान क्यों किये जाते हैं ?
उत्तर : यज्ञ का उद्देश्य मानव मात्र की वृत्ति में सुधार करना हैं। आज आम जनता में तमोगुण का विशेष प्रभाव है, उन्हें सत्त्वगुण की ओर प्रवृत्त करना ही यज्ञ या अन्य धार्मिक अनुष्ठानों का लक्ष है। प्रवचन, व्याख्यान जैसे मौखिक प्रयासों से समाजमें क्षणिक धर्मावेश तो लाया जा सकता है परंतु स्थाई परिवर्तन संभव नहीं । जब कोई संत धर्म को आचरण में उतारता है तो आम जनता सहजता से उनका अनुसरण करने लगती है। जब तक सच्चरित्रता नहीं है प्रवचन तथा व्याख्यान का कोई अर्थ नहीं है। यह कटु सत्य है कि जब तक प्रजा में नैतिकता, ईमानदारी नहीं होगी तब तक शासन व्यवस्था ईमानदार एवं नैतिक नहीं हो सकती। और जब तक प्रजा में भौतिकवाद का प्राबल्य होगा तब स्वस्थ मानसिकता संभव नहीं है प्रजा के चिंतन की धारा धर्म की तरफ मुडे तो प्रजा की मानसिकता बदल सकती है। इसलिये साधुसंत समय-समय पर विभिन्न प्रकार के धार्मिक अनुष्ठानों का सार्वजनिक आयोजन करते रहते हैं ताकि प्रजा की मनोदशा में सुधार हो और वह सुखी हो । यज्ञ का अर्थ मात्र अग्निमें आहुति डालना नहीं है। हमारा लक्ष सभी देवताओं को प्रसन्न करना तथा उनके आशीर्वाद लेना है। यही सच्चा धन है। इसीसे जीवन मंगल होगा। यही यज्ञ का लक्ष है।
प्रश्न : आध्यात्मिक विकास कैसे हो सकता है ?
उत्तर : किसी भी व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास के लिये आहार शुद्धि, नित्य स्वाध्याय (धार्मिक ग्रंथो, संत चरित्रों का पठन पाठन) सत्संग, गुरु तथा ईश्वर में पूर्ण श्रद्धा अनिवार्य हैं। अन्यथा कितना भी जप तप करने पर भी कोई उपलब्धि नहीं होती। यदि पात्र शुद्ध नहीं हो तो दूध जैसी शुद्ध सात्त्विक वस्तु भी खराब या खट्टी हो जाती है। दूध तो बैजान वस्तु है। यदि मानव शरीर तथा मन पूर्ण शुद्ध हो जाय तो उसे ईश्वर को आमंत्रित करने की आवश्यकता नहीं, वे स्वयं ही आ जायेंगे, जीव ब्रह्म स्वरूप हो जाएगा। गीता के अनुसार यह शरीर रथ है बुद्धि रथका सारथि है मन लगाम है तथा इन्द्रियाँ रथ के घोड़े हैं। यदि शरीर शुद्ध होगा तो बुद्धि शुद्ध होगी, शुद्ध बुद्धि ही सही निर्णय लेने में समर्थ है। शुद्ध बुद्धि ही मन रूपी लगाम को नियंत्रित कर इन्द्रियोंरूपी घोड़ों को सही दिशा दे सकती हैं और शरीर रूपी रथ को सन्मार्ग पर ले जा सकती है।
प्रश्न : गुरु शिष्य के लिए क्या करते हैं ?
उत्तर : गुरु, शिष्य की पात्रता के अनुसार ही शिष्य की आध्यात्मिक उन्नति के लिये यथोचित मार्गदर्शन देते हैं। यदि कम शक्ति का विद्युत बल्ब हो और अधिक वाल्टेज सप्लाय किया जाए तो बल्ब प्रकाश देने के बजाय शाट हो जाएगा, इसके विपरीत अधिक शक्ति का बल्ब हो और वाल्टेज कम दिया जाय तो भी पूर्ण प्रकाश नहीं मिल सकेगा। अतः समझदार इलेक्ट्रीशियन उचित व्यवस्था द्वारा बल्ब की शक्ति को ध्यान में रखते हुए संतुलित वाल्टेज देकर उसे प्रकाशमान करता है।
प्रश्न : साधना के दौरान कभी-नित्य कर्म अच्छा चलता है, कभी माला हाथ में लेने की इच्छा नहीं होती, ऐसा क्यों होता है ?- आहार दोष है या शरीर दोष है ?
उत्तर : शरीर प्रकृत्ति के आधीन है, प्रकृत्ति में समय-समय पर परिवर्तन होते रहते हैं इससे /भजन में विक्षेप होना संभावित है। परंतु इससे चिंतित होने की आवश्यकता नहीं है। जैसे नर्मदा पवित्र नदी है किन्तु जब बाढ़ आती है तब उसका पानी भी गंदा हो जाता है परंतु कुछ समय बाद पुनः स्वच्छ हो जाता है। अतः हमें चिंतित होने की आवश्यक्ता नहीं है। हमें तो गुरु प्रदत्त मार्ग पर नियमित रूप से चलते रहना है। चाहे रुचि हो या अरुचि । समय आने पर परिणाम आनंददायक होगा।
प्रश्न : ज्ञानी के क्या लक्षण हैं ?
उत्तर : अज्ञान है तो प्रवृत्ति है, जहाँ ज्ञान है वहाँ प्रवृत्ति नहीं होती, बड़े बड़े पद धारण करना, बड़े-बड़े केम्प खोलना स्कूल चलाना, योगिक शिक्षाएँ देना ये ज्ञानी के लक्षण नहीं हैं। ज्ञानी तो मौन है।
प्रश्न: शक्तिपात क्या है ?
उत्तर : यंत्र बल से, तंत्र बल से, तपोबल से या स्पर्श द्वारा, अश्रुपात करवाना, आवेश में ले आना या विचित्र क्रियाएँ करवाना यह शक्तिपात नहीं है यह सब सिद्धियों का फल है। और क्षणिक है। जैसे केल्शीयम का इंजेक्शन क्षणिक स्फूर्ति देता है परंतु थोड़े समय बाद स्थिति यथावत् हो जाती है। सच्चा शक्तिपात तो वह है कि जब किसी संत की कृपा होने पर उसकी दृष्टि मात्र से साधक के जीवन में आमूल परिवर्तन होता है उसके आध्यात्मिक भाव जागृत हो जाते हैं और जीवन पर्यन्त स्थिर बने रहते हैं। परंतु पात्रता के बिना ऐसा होना संभव नहीं है। जिस प्रकार दीपक जलाने के लिए जरूरी है कि पात्र छिद्रमय (फूटा हुआ) न हो, पात्र साफ हो उसमे तेल तथा बत्ती (दीवेट) भी हो जैसे ही फिर वह किसी जलते हुए दीपक के संपर्क में आएगा प्रकाश देने लगेगा । थोड़े समय बाद यह बताना भी संभव नहीं होगा कि कौन सा दीपक पहले जला और कौन सा बाद में। ठीक उसी प्रकार जब हमारे अंदर सब प्रकार की पात्रता आ जाएगी तब संतकृपा होने में देर नहीं लगेगी। उन्हें ढूँढने भी नहीं जाना पड़ेगा। वे स्वयं आ जाएँगे। यही सच्चा शक्तिपात है।
प्रश्न : शरणागति क्या है ?
उत्तर : प्राय: हम कहते हैं कि हमने सब भगवान पर छोड़ दिया है। वे हमारा योग क्षेम वहन करेंगे, यह शरणागति नहीं हैं। वे चाहे सुख दे चाहे दुःख हमें सब मंजूर है। यह शरणागति
प्रश्न: प्रयत्न किस के लिये करना है ?
उत्तर : हमें तेज प्राप्ति के लिये प्रयत्न करना चाहिए। घन प्राप्ति के लिए नहीं। तेज ही हमारी श्रेष्ठ पूँजी हैं। उसके सामने दुनिया की सारी संपत्ति तुच्छ है ।
प्रश्न : संसार में किस प्रकार रहना चाहिए ?
उत्तर : जिस प्रकार यात्री प्रतीक्षालय में बैठ कर अपनी गाड़ी (बस) का इंतजार करते हैं सब यात्री हिलमिल कर बैठते हैं। आपस में सुख-दुःख की बातें सुनते सुनाते हैं, सद्भाव रखते हैं परंतु हर यात्री को यह खयाल होता है कि यह प्रतीक्षालय है मेरा घर नहीं है । जैसे ही गाड़ी आती है बगैर किसी झीझक के प्रतीक्षालय छोड़कर गाड़ी में बैठ जाते हैं। हमें भी संसार में इसी प्रकार से रहना है।
प्रश्न: मन की चंचलता का क्या कारण है ?
उत्तर : जब तक हमारे अंदर वासना है तब तक मन स्थिर नहीं हो सकता। वासना के नष्ट होते ही मन अनायास स्थिर हो जाता है। वैसे शास्त्रों ने मन का स्वभाव ही चंचल कहा है 'मनस्चंचल मस्थिरम् किन्तु तीव्र भजन से सार, असार का भान हो जाता है तथा मन स्थिर हो जाता है।
"अभ्यासेनापि कौंतेय दृढवैराग्यमाप्नुयात् " (गीता)
अतः जैसे जैसे भजन बढ़ता जाएगा वैसे वैसे मनस्थिर होता जाएगा।
कबीर कहते हैं :
"मन जाए तो जाने दे मत जाने दे शरीर"
मन चाहे कुछ भी कहे शरीर उसे कार्यरूप न दे।
प्रश्न : जब तक गुरु विद्यमान हैं समय-समय पर शिष्य को मार्ग दर्शन देते रहते हैं परंतु गुरु के देहत्याग के पश्चात् शिष्य का क्या होगा ?
उत्तर : सिर्फ प्राकृत शरीर नष्ट होता है, गुरु नहीं। गुरु तो तत्त्व है, जो हमेशा शिष्य के साथ रहता है और किसी भी तरह शिष्य का मार्गदर्शन करता रहता है।
प्रश्न : जगत में कई धर्म और सम्प्रदाय हैं, ईश्वर के रूप की अनेक व्याख्याएँ की गई हैं, किसे सत्य माने ?
उत्तर : सभी धर्म एवं संप्रदायों का लक्ष एक है ईश्वर प्राप्ति ही है। कोई धर्म छोटा या बड़ा नहीं है। हमें सदा सभी धर्मो में समभाव रखना है। तथा अपने गुरु प्रदत्त मार्ग से चलना है।
"अपने गुरुमें सबको देखो,
सबमें अपने गुरुको देखो "
॥ गुरु ॐ ॥
॥ गुरु ॐ ॥ ॥ गुरु ॐ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् ॥
संत श्री श्री 1008 सद्गुरु ईश्वरदत्तजी महाराज
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